शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

निर्देशन एवं परामर्श



निर्देशन और परामर्श की बात को भारत में देखा जाये तो इसकी ऐतिहासिक पृष्टभूमि प्रचीनकाल से चली आ रही हैं, वैदिक कालक्रम से जिसमे रामायण कालीन 'रामायण' के रचियता जो पूर्व में एक डाकू की पृष्टभूमि से था, जो गुरु के निर्देशनुसार के परामर्शदाता के बाद रामायण को संस्कृत में लिखा था, उसी रामायण को वापस हिंदी में अनुवादित किया गोस्वामी तुलसीदास ने. 5000 वर्ष पूर्व महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन भ्रमित हुआ तो श्री कृष्ण भगवान में राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और जीवनशैली के लिए अपनें कर्तव्य मार्ग के लिए विचलित होने पर गीता ज्ञान दिया. इस भ्रमित अर्जुन ने कृष्ण से निर्देशन और परामर्श से युद्ध का निर्णय लिया और अपने युद्ध को कुशलतापूर्वक जीता. तब से ही इस गीता ज्ञान की रचना का निर्माण हुआ. इस प्रकार से भारत में ऐतिहासिक पृष्टभूमि भारतीय वैदिक काल से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष निर्देशन एवं परामर्श की व्यवस्था चली आ रही हैं. इस गीता ज्ञान से स्वामी विवेकानंदजी ने अमेरिकावासीयो को ज्ञान दिया, जहा पर इससे पहले कभी भाई-बहिनों के नाम से सम्बोधन नहीं हुआ, स्वामी विवेकानंद के निर्देशनुसार ही अमेरिकावासीयो के साथ पुरे विश्व को शून्य के आगे दशमलव का ज्ञान मिला. जिसके स्वरूप ही दुनिया भर में आधुनिक तकनीकी ज्ञान का विकास हुआ.         

शनिवार, 15 अगस्त 2015

आत्म विश्वास

बुद्धम् शरणम् गच्छामि,
धम्मम् शरणम् गच्छामि,
संघम् शरणम्  गच्छामि .
बुद्धम् शरणम् गच्छामि,
महात्मा बुद्ध कहते है की पहलें बुद्धि की शरण में अर्थात किसी की संज्ञा को समझने के लिए बुद्धि यानि ज्ञान से उस तत्व को पहले जानना जरूरी है.
धम्मम् शरणम् गच्छामि,
पहले जब किसी तत्व के ज्ञान को बुद्धि बल से जान लिया जाता है तो जो उस ज्ञान को अपने जीवन में लागू करो.
संघम् शरणम्  गच्छामि,
जब आप उस तत्व को, उस संज्ञा को जान जाते है तो और जीवन में लागू कर देते हो तो फिर उस ज्ञान को इस संसार में बाटो तो आप सफल हो सकते है.

एकबार गौतम बुद्ध का शिष्य अपने गुरु से बोलो गुरूजी मुझे आज्ञा दें, मुझे एक वेश्या के पास जाना है. तो महात्मा बुद्ध ने उस शिष्य को आज्ञा दी जाओ भत्ते. जब शिष्य इस प्रकार की आज्ञा मांगी तो विचलित चित के सह साथियो ने कहना शुरू कर दिया - हम लोग साधू सन्यासी है, औरतो से क्या लेना देना इस प्रकार संदेहास्पद बुराइया करने लगे. समय बितता गया और छ महीनो बाद वहीं शिष्य आया की और अपनें गुरु से बोला की गुरु जी ये एक और आप की शिष्या हो गयी.
निष्कर्ष 
अर्थात् गुरु को शिष्य पर विश्वास होता है, गुरु कान का कच्चा नहीं होता और जो गुरु कान का कच्चा होता वो सफल शिष्य भी नहीं बना सकता है.
बिना बिचारे किसी भी सदस्य, संस्थान, संघ, कार्यक्रम में योग्य-योग्यता पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाना विश्वसनीयता को खोना पड़ता है.